नब्बे के दशक की बात है। जब पहली बार हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट घूमने का मौका मिला था। आज भी याद है, पहुंचते ही चटक धूप ने स्वागत किया था हमारा,जो कि पीछे छूटे ब्रिटेन के नवंबर महीने के बेहद कि पीछे छूटे ब्रिटेन के नवंबर महीने के बेहद ठंडे और बदली व बूंदाबूंदी भरे मौसम से कहीं अधिक मन के करीब महसूस हुई थी और पैरों को पूरे हफ्ते उमंग और फुर्ती से भरकर रखा था उस खुले और खुशमिजाज गुलाबी मौसम ने। होटल पहुंचते ही पता चला था कि हम सबकी उसदिन की चाय और डिनर ब्रिटिश एम्बेसी में है। फटाफट एक कप चाय पी और शाम के चार बजे के करीब हम 16 लोगों का काफिला, जिसमें ब्रिटेन से आठ सर्जन और उनकी पत्नियाँ थीं , एम्बेसी पहुँच गए और रानी एलिजाबेथ के अतिथ्य व शान-शौकत का आनंद लिया हमने। होटल शहर के खूबसूरत और आधुनिक क्षेत्र के बीचोबीच था जहाँ से सभी पर्यटक-स्थल ज्यादा दूर नहीं थे। वैसे भी पूरा हफ्ता था हमारे पास बुडापेस्ट से परिचित होने और घूमने को। बाकी कि वह पहली शाम हमने उस पांचतारा होटल में यात्रा की थकान मिटाते ही बिताई। अनगिनित यादें हैं इस खूबसूरत शहर की घुमाई की। परन्तु एम्बेसी में वह विशिष्ट और शाही डिनर, औपेरा के बाद वह चौक और अति आधुनिक दुकानों और बाजार की घुमाई , फिशर कासल और म्यूजियम ही वह जगहें हैं, जिनकी स्मृति अमिट हैं आज भी। पार्लियामेंट के आगे की वह भव्य परेड भी भुलाए नहीं भूलती । पतझड़ के पीले पत्तों से सजे पंक्तिबद्ध पेड़ और गहरे लाल व काले रंगों के धूप में चमकते यूनिफौर्म में सजा वह सैनिकों का सैलाब , निश्चय ही एक रोमांचक व यादगार दृश्य था वह भी।
डेनबू नदी के किनारे बसा बुडापेस्ट दो हिस्सों में बंटा हुआ हैः पहाड़ी वाला बुडा और व्यापारिक हब पेस्ट। 1778 के आसपास इन्हें एक खूबसूरत और आधुनिक पुल से जोड़कर बुडापेस्ट बना दिया गया था। पुल के दोनों तरफ खड़े चार भव्य शेर दोनों हिस्सों की रक्षा करते हैं। किसी परियों की कहानी वाली किताब-सा आकर्षक यह शहर आधुनिक तो है, पर आजभी पूरी तरह से अपने सभी मध्यकालीन दुर्ग और राजमहलों को संजोए-समेटे और यही नए पुराने का समिश्रण ही इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती है। ध्यान से आँख बंद करके देखो तो इसके सुन्दर झरोखों में आज भी परियों की राजकुमारी बैठी दिख जाएगी और अंधेरे कोनों में ड्रैक्यूला और वैम्पायर्स भी।
दूसरे विश्वयुद्ध में पूरी तरह से ध्वस्त यह शहर आज सिर्फ पचास साल में अपनी पूरी गरिमा के साथ फिरसे कैसे उठ खड़ा हुआ , देखकर आश्चर्य होता है। निश्चय ही यह यहां के लोगों की जिजीविषा और स्वाभिमान ही है -कड़ी मेहनत मेहनत और खुद में विश्वास है, जिसकी वजह से यह संभव हो पाया। शायद यह इस दुनिया का अकेला शहर है जिसकी चर्च में वहाँ के संरक्षक सेंट, सेंट स्टीवेन का कटा हुआ हाथ आज भी सुरक्षित और प्रदर्शित है ( आपसे कहा था न कि परियों और ड्रैकुला दोनों का शहर है यह—यानी कि कोमल और वीभत्स दोनों साथ-साथ और बगल-बगल में)। यहाँ का पार्लियामेंट हाउस अपनी सुरुचि, वैभव और कला से चमत्कृत करता है। आर्ट म्यूजियम में स्पैनिश और इटैलियन आर्टिस्टों का सबसे बड़ा और बहुमूल्य संकलन है। तस्बीरें ऐसी कि देखते-देखते बात करने लग जाएँ। मांसलता के रंग इतने सजीव कि चुटकी काटने को मन करता है। इन तस्बीरों में खड़े मासूम बच्चों को खिलौनों और मिठाइयों की तरफ ललचाई नजर से देखते देख, मन उन्हें सबकुछ दे देना चाहता है। फूलों से खुशबू आने लगती है और कपड़ों की तहें और सिलवटों की कोमलता स्वयं अपने बदन पर महसूस होने लगती है। तैलीय पद्धति के चित्रों में आज भी दुनिया इन कलाकारों से बहुत कुछ सीख सकती है। रैम्ब्रांट की ‘जोसेफ्स ड्रीम’ नाम की तस्बीर में तो मन ऐसा रमा कि पतिदेव को मुझे बाँह खींचकर जगाना पड़ा। गोया, मुलर, आमरीनी सब एक-से-एक बढ़कर। कितने ऐसे जिन का शायद हमने नाम भी न सुना हो पर अपने काम में उतने ही माहिर और अभिव्यक्ति में दक्ष।
अगले दिन फिशर कासल की कई घुमावदार सीढ़ियों से चढ़कर जब ऊपर पहुंची तो फिर से वही एक रोमांटिक जिप्सी गांव जैसा ही माहौल था। कहीं कोई तस्बीरें बना रहा था , तो कहीं औरतें बहुत बारीक और खूबसूरत लेस से बनी चीजें बेच रही थीं। यहां तक कि बचपन में बारबार देखे और खेले, उस दाने चुगते तीन मुर्गे वाले लकड़ी के सुन्दर और रंग-बिरंगे खिलौने को देखकर लगा कि कहीं अपने जाने-पहचाने देश में ही तो नहीं! विश्वास हो चला कि यह लोग भी जरूर पहले कभी, शायद आठवीं शताब्दी में एशिया के उन्ही हिस्सों से आए थे जहां से हम आप हैं। हमारे पूर्वज एक हैं। कासल के उत्तरी हिस्से से आती, हवा में गूंजती, वह वॉयलिन पर बजती मधुर धुन की स्वर-लहरी एक अदृश्य डोर-सी अपनी तरफ खींचे जा रही थी। अकेली चुपचाप बैठी में घूमना-फिरना सब भूल, एक के बाद एक वे सुरीली धुनें सुनती और पिघलती चली गयी। वह भी अपनी धुन में मस्त बजाता रहा, बिना इसकी परवाह किए कि कोई सुन भी रहा है या नहीं।
क्रमश:
(बनारस में 1947 में पैदा हुई शैल अग्रवाल, बीएचयू से अंग्रेजी साहित्य से एमए करने के बाद 1968 से सपरिवार इंगलैंड में ही रहती हैं। साठ से अधिक देशों का भ्रमण कर चुकी शैल के साथ इसी साल फरवरी में जब बनारस आयी थी उनकी गंगा मैया से मिलने की छटपटाहट को पढ़ा था, दुनियाभर के दोस्त उनकी यात्राओं को और पढ़ने में दिलचस्पी दिखाएं, रोमिंग जर्नलिस्ट संग नब्बे के दशक में बुडपेस्ट की यात्रा का संस्मरण शेयर कर रही हैं, आप हमसे जुड़े रहें, दोस्तों को यह ब्लाग शेयर करें आगे भी आप शैल जी संग दुनिया की सैर करेंगे)
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