वाराणसी। अयोध्या में दीपोत्सव के दौरान जहां त्रेतायुग की झलक करोड़ों
रुपए खर्च करने के बाद दिखाई दी वहीं काशी द्वापर की कान्हानगरी बिना सरकारी मदद
के बन गयी। मौका था काशी के लक्खामेले में शुमार नागनथैया का। काशी के तुलसीघाट पर
494 साल की समृद्ध परंपरा, की झलक दिखाई पड़ी। पीढ़ियों का हिसाब-किताब करें तो आठ-दस पीढ़ियां गुजर गई लेकिन साल दर साल उसी उत्साह और श्रद्धा के साथ नागनथैया को देखने के लिए लाखों लोग गंगा तीरे पर
जुटते हैं। न एक पैसे का विज्ञापन न प्रचार न बड़े-बड़े होर्डिंग,सिर्फ हिंदू पंचाग
की तिथि के अनुसार भीड़ की जो जुटान होती हैं दुनिया दांतों तले ऊंगली दबा लेती है। एक दिन की नागनथैया लीला इस कृष्णलीला को विश्वप्रसिद्ध बना देती है। गंगा किनारे जो आस्था का ज्वार उमड़ता है देखते ही बनता है।
अखाड़ा तुलसीदास के महंत परिवार लाख दुश्वारियों के बावजूद इस परंपरा को निरंतर जारी रखकर काशी के नाम को दुनिया में धन्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते है। काशी के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी को इस आयोजन की श्रेष्ठता और गौरव को इसके साक्षी बनकर चार चांद लगाने में कोई कसर नहीं
छोड़ते हैं। भीड़ को देखकर महंत परिवार के डॉक्टर विजयनाथ मिश्र कहते हैं जो धार्मिक होते हैं,उनकी आयु बड़ी होती है। धार्मिकता से गम्भीर बीमारियों से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। ऐसे धार्मिक आयोजन से, मन में, पॉज़िटिव ऊर्ज़ा आती है, इसलिए काशी के लक्खी मेले, किसी सामाजिक मानसिक टानिक से कम नहीं हैं।
नागनथैया लीला लीला में गंगा कुछ देर के लिए मानो यमुना बन जाती है। कान्हा बलदाऊ और अन्य बालसखाओं के साथ कन्दुकक्रीड़ा इसमे करते हैं। गेंद यमुना के कालियदह में चली जाती है। बच्चे गेंद लाने की जिद करते हैं तो कान्हा बलदाऊ से पूछने के बाद किनारे कदम्ब के पेड़ पर चढ़ते हैं और दह में छलांग लगा देते हैं। दुष्ट कालियनाग का मानमर्दन करते हैं और उसके फन पर सवार होकर ऊपर आ जाते हैं। इस दृश्य को देखने के लिए सदियों से लाखों की भीड़ घंटों प्रतीक्षा करने के साथ जयकारा लगाती है।
कान्हा की उस मनोहारी छवि को आंखें भर-भरकर लोग देखते हैं, आप नहीं देख पाएं हो वीडियो देखें। पसंद आने
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