जीजी पहचाना हम मगरू हैं, शैल जीजी ही न हैं आप
नवंबर 27, 2019
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रहती ब्रिटेन में हूं परिवार के साथ लेकिन आत्मा भारत
में बसती है। बनारस आने के दौरान मां गंगा से मिलने के लिए संकरी गलियों को पार
करते हुए गंगाघाट पर पहुंचने के बाद 28 फरवरी 2010 को नाव पर पति के साथ सवार हो गयी।
नाव गंगा की लहरों पर चल पड़ी थी। भगवान भास्कर विदा हो रहे थे अचानक ही गंगा में हलचल बढ़
गई। बीसियों नावें आ चुकी थीं चारो तरफ, सैकड़ों यात्रियों से लदी-फंदी। दो तीन बड़े और सभी सुख-सुविधाओं
से लैस बजड़े भी दिखे जो कि खचाखच भरे हुए थे। बहुत किराया है इनका। सरकारी बजड़े
हैं। मोदी जी ने चलवाए हैं। कुछ प्राइवेट भी हैं। पर सबकी खपत है यहाँ बाबा
विश्वनाथ की दया से- इनकी भी और हमारी भी। वह पलपल ज्ञान वृद्धि कर रहा था हमारी।
कौन आएगा, इसबार ? फिर
से मोदी जी? पति अब उसके साथ आगामी चुनाव और राजनीति की बहस में पड़ चुके थे।
मैंने देखा बनारस जितना भी बदला हो , जितना भी विकास हुआ या नहीं हुआ हो, परन्तु गंगा और इसके घाट अवश्य बदल रहे थे। तीर्थ स्थली के साथ-साथ
मनोरम पर्यटक स्थल भी बनते जा रहे हैं ये। आध्यात्म और दर्शन के नाम पर भी कई नई
इमारतें थीं सामने। मुरारी बापू की तो ठीक गंगा के बीच में ही। बेहद व्यवहारिक और
व्यापारिक होती जा रही है अपनी गंगा और काशीव्यवहारिक और व्यापारिक होती जा रही है
अपनी गंगा और काशी। अगली बार आई तो शायद और भी बहुत कुछ नया देखने को मिले।
विश्वनाथ कौरिडोर के बाद तो शायद कचौड़ी गली और विश्वनाथ गली, ठठेरी बजार जैसी जगहों की शकल ही बदल जाए। मछलियों की खेती, चारो तरफ मशरूम की तरह उगते होटल और ये तैरते बजड़े व नावें सब
समर्थन कर रहे थे मेरी सोच का । शायद अब ये बनारसी मल्लाह और पंडे भी शीघ्र ही ठग
नहीं सफल और संपन्न व्यापारी हो जाएँ। असर तो था। कई जगह घाट के किनारे खड़ी फूस
की छतरियों की जगह नारंगी हरे नीले पीले त्रिपाल भी लगे दिखे पंड़ों की चौकी पर, जो नाव से देखने पर भद्दे लग रहे थे और आँखों में गड़ रहे थे। याद
दिला रहे थे कि सभी परिवर्तन सुधार नहीं। कुछ बस सुविधाजनक ही कहे जाएंगे। नाव
पंचगंगा पर पहुँच चुकी थी। यह वही घाट था जहाँ माँ ताउम्र करीब करीब हर सुबह ही
माँ और चाची डुबकी लगाती थीं। पैदल-पैदल गलियों-गलियों ही आ जाती थीं। गाड़ी या
रिक्शा वैसे भी नहीं पहुँच सकते उन गलियों में। यही असली बनारस मस्ती थी तब।
बनारसियों की मौर्निंग वॉक भी और आत्मशुद्धि भी। बिल्कुल अपने रहे है ये घाट, बचपन की सैकडों यादों से जुड़े।
पंचगंगा घाट से हमारी नाव मुड़ी और पचासों नावों के बीच जगह ढूंढती
दशाश्वमेध घाट और शीतला घाट के बीच आ लगी। पंडे ने बताया शीतला घाट की आरती बेहतर
है। मेरे लिए तो सभी कुछ बेहतर था , यहीं
पर तो सभी को विदा किया था। इन्ही सीढ़ियों पर बैठकर मणिकर्णिका से आती लहरों में
ढूँढा था उन्हें। मन ही मन जी भरकर लाड-प्यार और शिकवे-शिकायत किए थे कभी। सात
बजने वाले थे और आरती शुरु होने वाली थी।
अगला पल रोमांचक था । गंगा की लहरों पर सड़कों सा ट्रैफिक जाम।
बारबार ही नाव के अंदर हाथ पैरों को रखने को कहा जा रहा था ताकि चोट न लगे परन्तु
श्रद्थालु अभी भी गंगाजल ले और भर रहे थे । माथे और आँखों से लगा रहे थे। एक दूसरे
के मस्तूलों से टकराती , चप्पू
से परे धकेलती, हमारी नाव भी निकल ही आई वहाँ से और अगले दस मिनट में हम वापस
भदैनी घाट पर पहुंच गए थे। वादे अनुसार सबके उतरने के बाद ही हमने पैसे दिए। वाकई
में उसने आधे ही पैसे लिए। फिर हंसकर बोला- ‘ जीजी पहचाना , हम मगरू हैं। शैला जीजी ही न हैं आप और यह जीजा जी? बहुत दिन बाद आईं इसबार इधर। ‘ वह बोले जा रहा था और मैं चुपचाप
यादों के पन्ने पलटती, उसे
पहचानने की कोशिश कर रही थी। ‘अच्छा
जीजी प्रणाम। अब आप गली के रास्ते से नहीं, अस्सी घाट से ही लौटिएगा। रोशनी भी है और सवारी भी आराम से मिल
जाएगी।‘
जाने किस नेह और परवाह में डूबा वह अभी भी एक हितौषी-सा मशवरे पर
मशवरे ही दिए जा रहा था, पर
वह गूंजती महकती यादगार शाम अब अपने आखिरी पड़ाव पर जा रहुंची थी। शायद बातचीत के
दौरान उसने पति के मुंह से नाम सुन लिया था। या फिर घर या कारखाने में काम करने
वाला कोई नौकर -मजदूर रहा होगा कभी। या किसी मल्लाह का बेटा हो , जिसकी नाव में बचपन में घूमी थी! कई ‘शायद’ थे जो अब बचपन की
गलियों बीच रंग बिरंगे गुब्बारों से घूम रहे थे। तरह-तरह से बहला-भटका रहे थे। पर
मैंने फूटने के डर से एक को भी नहीं पकड़ा। पीछे छूटी लहरों की तरह बिना कुछ बोले
बस हाथ जोड़े-जोड़े ही पलट ली। रास्ते भर सोचती रही- कौन था यह मगरू? फिर भी, याद
न आने पर भी, जैसा उसने कहा वैसा ही किया हमने और अस्सी घाट से ही लौटे। अंधेरा
वाकई में शायद उन अनजान गलियों में बहुत रहा होगा। यह बात दूसरी थी कि घर पहुँचने
के लिए रास्ता थोड़ा ज्यादा लम्बा और भीड़-भरा हो गया था हमारे लिए, और वह रास्ते का चक्का जाम तो बहुत ही जबरदस्त और भयानक ही मिला था
हमें उस रात, जब हम जाने कितनी देर औटो में बैठे बरात और बरातियों का नाच ही
देखते रह गए थे। शायद ऐसे ही किसी पल में तो कबीरदास ने कहा था-माया महा ठगनी हम
जानी…
(बनारस में 1947 में पैदा हुई शैल अग्रवाल, बीएचयू
से अंग्रेजी साहित्य से एमए करने के बाद 1968 से सपरिवार इंगलैंड में ही रहती हैं।
भारत उनकी आत्मा में है। पिछले 50 साल से करीब करीब प्रतिवर्ष एकबार तो भारत अवश्य
ही आती हैं। साठ से अधिक देशों का भ्रमण कर चुकी शैल जी इसी साल फरवरी में बनारस
आयी, क्या बदला,क्या बदरंग महसूस हुआ शेयर कर रही हैं रोमिंग जर्नलिस्ट संग।
आगे भी आप शैल जी संग दुनिया की सैर करेंगे )
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