हर हर महादेव के जयजयकारे के साथ हमारी नाव चल पड़ी
नवंबर 26, 2019
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28 फरवरी को बनारस की शाम का गंगा मैया से मिलने के
लिए पतिदेव के साथ पैदल ही घाट की तरफ चलते हुए बदलते बनारस के रंग-रूप देख रही
थी। संकरी गलियों को नापते हुए ज्योंही गली के
अगले मोड़ पर पहुंची तो गंगा का पाट दिखने लगा। गलियों वाला अंधेरा भी नहीं था अब।
सामने डूबते सूरज की स्वर्णिम आभा से गंगा की लहरें जग-मग करती मानो बांहें फैलाए
हमारा ही इंतजार कर रही थीं। अब बस चालीस पचास छोटी-छोटी सीढ़ियाँ ही रह गई थीं
उनके और हमारे बीच। लहलहाती गंगा मैया और नहाते व नौका बिहार करते श्रद्धालुओं व
पर्यटकों की मोहक छटा, भरी
गर्मी के बीच पानी से उठता वह ठंडी बयार का झोंका, सबकुछ नयी ही स्फूर्ति दे रहा था थके मन और पैरों को सारे संशय को
दूर करता वही चिर-परिचित प्यार भरा आवाहन भी। उन्ही लहरों सा आलोड़ित मन अब उमग
रहा था दौड़कर नदी तक पहुंचने को। हाथ पैर पानी में लटकाकर किनारे पर बैठने को।
ख्याल मात्र से ही, शाम
के उस धुंधलके में भी बच्चों की सी उतावली हो झटपट आगे बढ़ी, परन्तु अगले पल ही उम्र का लिहाज करती और फिसलने व गिरने के डर से
रेलिंग पकड़ती धीरे-धीरे ही नीचे उतरी।
आगे-आगे चलता वह आदमी कबका नीचे की सीढ़ी तक जा पहुँचा था और
मुंडेर पर बैठा वहीं से निर्देश और चेतावनी दिए जा रहा था। बीच-बीच में बड़ी
तत्परता से देख भी लेता, मानो
फिसलते ही दौड़कर संभाल लेगा। उसका यह अतिशय ध्यान अटपटा तो था परन्तु अपनत्व भरा
और अच्छा लगा। आखिर अपने शहर में थी और हो सकता है उन सीढ़ियों पर कइयों को पहले
गिरते देखा भी हो उसने। छोटे शहर और गांव के लोग, अभी भी चार कदम साथ चलते हैं तो रिश्ता कायम कर लेते हैं, जुड़ जाते है अजनबियों तक से। गंगा मैया के आशीर्वाद और सावधानी से हम दोनों
उन सीधी खड़ी सीढ़ियाँ से सही -सलामत बिना किसी दुर्घटना के नीचे उतर आए। हाथ
जोड़कर साभार विदा ली तब हमने अपने उस सद्य परिचित से। भदैनी घाट था वह और बगल में
ही अस्सी घाट, जहाँ भीड़भाड़ ज्यादा थी और यहाँ के अपेक्षाकृत थोड़ी कम शांति।
हमने यहीं इसी घाट पर रुकने का निर्णय लिया। घाट किनारे एक मनोरम जगह ढूंडकर बैठ
गए हम। वैसे भी कोई विशेष कार्यक्रम तो था नहीं। आंखें अब आराम से अगल बगल का भी
जायजा लेने लगीं। सामने लहरों पर गंगाचिल्ली झुंड में उड़ रही थीं। शायद मछलियों
को ढूंढ रही हों, या
फिर…मैंने सोच को वहीं रोक दिया और बहकने नहीं दिया। बगल में अस्सी घाट पर अच्छी
चहल-पहल थी और सप्ताह के उस सामान्य बुधवार के दिन भी देहाती मेले जैसा माहौल था।
गुब्बारे, नीबू पानी, चाय
, भजन के सी.डी. और फूलमाला के साथ मइया की चूनर व प्रसाद सभी कुछ
बिक रहा था। पर यहाँ ठीक हमारे सामने डूबते सूरज की स्वर्णिम किरणों में अटखेलियाँ
करती गंगा की लहरें निर्मल थीं। बीसियों गंगाचिल्ली अभी भी सिंदूरी किरणों के नीचे
लहरों पर मंडरा रही थीं और कई श्रद्धालु और कुछ पर्यटक अभी तक उन्ही के नीचे गंगा
में डुबकियां ले रहे थे। कुछ बच्चे गोताखोरी का भी अभ्यास करते दिखे। उन्ही अधनंगे
हुड़दंग मचाते बच्चों और किशोरों के बीच कुछ विदेशी पर्यटक भी थे जो गंगा की शीतल
और शांत लहरों का जी भर-भरकर आनंद उठा रहे थे। संभवतः अनूठा और नया अनुभव था यह भी
उनके लिए और किसी भी समुद्र तट से अधिक शांत व सुरक्षित भी। फिर आस्था के रहस्य से
भी तो जुड़ा हुआ है गंगा में नहाना। मोक्षदायी है-अब तो यह बात देशी-विदेशी सभी को
पता चल चुकी है। यहाँ की यह शांति और अलौकिकता ही तो असली आकर्षण है और शायद
पर्यटन और अर्थ-व्यवस्था के लिए काशी का संतोषजनक प्रचार भी। आँखें आभार में सामने
बैठे उस अजनबी पर फिर जा अटकीं , वही
तो हमें यहाँ तक लाया था। अब वह पंक्तिबद्ध पर्यटकों से पैसे ले रहा था और उन्हें
टिकट बांट रहा था। उत्सुकता जगी। देखते-देखते एक सुंदर सजी-धजी नाव भी किनारे आ
लगी और तुरंत ही देशी-विदेशी पर्यटकों की भीड़ लग गई वहाँ उसके आसपास। नाव
दशाश्वमेध घाट तक जा रही थी वहाँ आरती के लिए रुककर वापस ले आएगी उसी ने हमारी
जिग्यासा को शांत किया। तो दशाश्वमेध घाट ने बुला ही लिया। आँखें खुशी से भर गईं। ‘अगर आपको भी जाना है तो किनारे पर खड़ी हो जाइये और अंत में लौटकर
पैसे दीजिएगा। इनके सामने तो हरगिज ही नहीं। स्पेशल रेट दूंगा मैं आपको।‘ बात समझ
में नहीं आई- ऐसा क्यों? फिर
भी कुछ पूछा नहीं। शायद कुछ-कुछ समझ में आ रही थी। वैसे भी, जो भी ले ठीक ही है। बनारसी होने का भाईचारा जुड चुका था हमारा। आरती
तो कई बार देखी थी पर दशाश्वमेध घाट का लोभ संवरण नहीं हो रहा था। पति की तरफ देखा
तो बोले- चलो घूम ही लेते हैं, किनारे
पर भी क्या बैठना। जितनी बड़ी-बड़ी नावें आसपास घूम रही थीं उस हिसाब से नाव छोटी
थी पर मोटर से चलने वाली और नई। हम दस बारह पर्यटकों के साथ दो मल्लाह भी बैठे।
जरूरत पड़ने पर चप्पू भी तले में रखे दिखे। सामने बैठा युगल पूना से था और बगल में
बैठा जर्मनी से। अपना परिचय मैंने स्थानीय ही कहकर दिया- पैदा बनारसी तो कहीं भी
रह ले पर ताउम्र बनारसी ही तो। खुद पर ही हंसने की अब मेरी बारी थी। कौन कहेगा
पचास साल हो चुके बाहर रहते-रहते। हर हर
महादेव के जयजयकारे के साथ हमारी नाव चल पड़ी। अब रामनगर और मुगलसराय को अस्सी से
जोड़ता नया पुल दिख रहा था और लहरों में आग लगाती सी उसकी रौशनी भरी झिलमिल परछांई
भी। पुल वाकई में शाम के उस धुंधलके में जगर-मगर कर रहा था। उधर जाने को अब पूरा
शहर पार करने की और राजघाट के पुल तक जाने की जरूरत नहीं रह गई थी। गंगा के दोनों
पाट यातायात और वाहनों के लिए जुड़ और खुल चुके थे। राजघाट के पुल से लेकर मैदागिन
तक जो जाम लगा करता था, उसकी
यादें शिशुबिहार के दिनों से ही परेशान करने वाली रही हैं मेरे लिए। स्कूल बस
घंटों खड़ी रह जाती थी वहाँ पर और अक्सर चार साल की मैं पिताजी के मना करने पर भी
पैदल ही मैदागिन घर के लिए विश्वेश्वर गंज से चल पड़ती थी । निश्चय ही कुछ तो आराम
और सुविधा मिली ही होगी बनारस वासियों को इस नए पुल से।
चार कदम चलकर नाव अस्सी घाट पार करते ही वापस घूम गई। जानकी घाट, तुलसी घाट होते हम हरिश्चन्द्र घाट की तरफ बढ़ रहे थे। विजयानगरम घाट
का रूप काफी बदला और संवरा दिखा दूर से। रंगी पुती कुछ नई मूर्तियाँ दूर से ही दिख
रही थीं। पर हवा में फिर वही जलती चिताओं की महक थी, जिससे बचपन से ही बेचैन हो जाया करती थी। फिर भी हर इतवार को नौका
विहार तो अवश्य ही करती ही थी। गंगा नहाने का शौक नहीं था पर गंगा से दूर नहीं रह
पाती थी। तब भी थोड़ी देरतक आंखें बन्द रखने के बाद, अभ्यस्त हो जाती थी शायद इस तीखी गन्ध से भी और अपने मृत्यु और
शवों के भय से भी। जलती चिताओं को भयभीत और निष्पलक घूरते रहना मानो आदत-सी पड़
चुकी थी। बनारस में नौका बिहार की, रहन
सहन और जीवन दर्शन की, मौत
हमेशा से एक अभिन्न हिस्सा रही है। भलीभांति जानता और पहचानता है हर बनारसी इसे।
फिर वैसा ही हुआ। बन्द आंखें खुलीं तो सामने अद्भुत दृश्य था। लगा लपटों के बीच
कोई कुत्ता वगैरह है वह, टांगे
ऊपर को उठाए सीधा पड़ा जल रहा है। पर यह कैसे संभव है, जानवरों का तो शवदाह नहीं होता! फिर दोबारा ध्यान से देखा तो दूर
से भी आकार स्पष्ट हो चला। चिता में बैठी हुई लाश थी और ताप से टेढ़ी मेढ़ी लुढ़क
रही थी। जिन्दगी भी कितना छलती है- किसीको सबकुछ देगी, किसीको ढंग का अंतिम पल भी नहीं। पर यह कैसे संभव है? अनायास ही मुंह से निकला। लावारिश होगा, ऐसे ही बैठे-बैठे प्राण निकल गए होंगे और पड़ी पड़ी लाश ऐंठ गई
होगी। किसीने बताया या खुद ही सोच लिया याद नहीं, पर अब आंसू भरी आंखों से बेवकूफ न लगूँ , इसलिए दूसरी तरफ मुंह घूमाकर बैठ गई और सुरमई अंधेरे में मिली
हरी-नीली शीतल लहरों को देखने लगी, जहाँ
एक ताजी कटी पतंग लहराती-सी नाव की तरफ बही चली आ रही थी। पतंग सुंदर थी। मल्लाह
ने लपक कर बच्चों की सी व्यग्रता से चप्पू के साथ उठा लिया उसे। परन्तु आश्चर्य तो
तब हुआ, जब मांझे को उंगलियों पर लपेटकर तोड़ा और फिरसे पतंग को वैसे ही
गंगा में वापस बहा दिया। ‘चीनी
कांच लगा तीखा माझा है यह। छूते ही मछलियों का गला काट देता है।‘ मेरी विस्मित
आंखों को देखकर उसने स्पष्टीकरण भी दिया मुझे। हवा के साथ आती तीखी महक बता रही थी
कि आसपास बहुत मझलियाँ थीं। शायद लाशों के गोश्त की वजह से या फिर मछलियों की खेती
होती हो यहाँ पर। रूमाल न होने की वजह से मैंने पर्स को ही अपनी नाक पर रख लिया
था। हाँ, उसकी जागरुकता और पर्यावरण के प्रति सतर्कता अवश्य बहुत ही अच्छी
लगी ।
क्रमश:
(बनारस में 1947 में पैदा हुई शैल अग्रवाल, बीएचयू
से अंग्रेजी साहित्य से एमए करने के बाद 1968 से सपरिवार इंगलैंड में ही रहती हैं।
भारत उनकी आत्मा में है। पिछले 50 साल से करीब करीब प्रतिवर्ष एकबार तो भारत अवश्य
ही आती हैं। साठ से अधिक देशों का भ्रमण कर चुकी शैल जी की लेखनी को दिल की
भावनाओं को व्यक्त करने का हथियार बनाई। इसी साल फरवरी में बनारस आयी शैल अग्रवाल
को बनारस में क्या बदला,क्या बदरंग महसूस हुआ शेयर कर रही हैं रोमिंग
जर्नलिस्ट संग। आगे भी आप शैल जी संग दुनिया की सैर करेंगे )
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