बहुत बदल रहा है बनारस,बनारसियों के अंदर-बाहर भी
नवंबर 25, 2019
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ब्रिटेन लौटने में चंद दिन बचे थे,बनारस आकर भी गंगा मैया से बिना
चले जाए दिल को मंजूर नहीं था। घर से डेढ़ मील के रास्ते को नापते हुए मां गंगा की
तरफ निकल पड़ी थी। बनारस में इसे पहले जिस तरह जाम का जंजाल लगता था 28 फरवरी 2019
की शाम को वाहनों के जाम भी वैसे ही थे और व्यवस्था में भी कोई विशेष सुधार
नहीं, खास करके शहर के पुराने और व्यस्त क्षेत्रों में । जबकि शहर के
बाहरी और खुले क्षेत्रों में नए नए मॉल और डिजाइनर दुकानों के खुल जाने की वजह से
युवाओं और गृहणियों की अफरा-तफरी में खूब वृद्धि हुई है और भीड़भाड़ के बावजूद
आया-जाया जा सकता है। विश्वनाथ बाबा के
दर्शन या विश्वनाथ गली घूमना तो मानसरोवर यात्रा जैसा ही कठिन और दुर्लभ महसूस हुआ
मुझे। घंटों लम्बी लाइन थी चाहे जिधर से भी जाएँ, पर श्रद्धालु थे कि भरी दोपहरी भी, पसीना टपकाते अचल खड़े थे। कुंभ के मेले के दिन थे वे और साधु-संत, तीर्धयात्री व पर्यटक सभी इलाहाबाद के बाद बनारस ही तो आ जाते हैं
दर्शन को। शिवरात्रि भी पास ही थी। तीनलोक से न्यारी काशी की आबादी कई गुना अधिक
प्रतीत हो रही थी। जगह जगह लाउडस्पीकर पर एलान किया जा रहा था-बच्चों, वृद्धों का हाथ पकड़े रहें और गुम हो जाने पर तुरंत ही पुलिस को
इत्तला करें। स्थानीय मीटिंग पौंइंट पर इंतजार करें । फिर हम तो बच्चे और वृद्ध दोनों
ही थे। मन से बच्चे और शरीर से वृद्ध। हाथ पकड़े तो थे पर कौन किसको संभालता और
खोने पर कैसे ढूँढता! फलतः मन-ही-मन हाथ जोड़कर ही दर्शन कर लिए थे विश्वनाथ जी के
भी और संकट मोचन के भी। गली की मुहानी से ही प्रणाम करके दोनों का आशीर्वाद ले
लिया। हालांकि दोनों छोटी बहनें दर्शन कर आई थीं। शायद उनकी श्रद्धा और मनोबल मेरे
पास नहीं थे। यह तो था कल देखे चौक का वर्णन परन्तु यहाँ लंका के आसपास भी कोई
ज्यादा फर्क तो नहीं। हमारी आबादी ही इतनी अधिक हो चुकी है फिर यह तो बनारस है, जहाँ चारो तरफ श्रद्धा और भक्ति का उमड़ता सैलाब रहता है। आदमी
जहाँ जीने ही नहीं, मरने
के लिए भी तो आता है। अब इसके लिए शासक और नेता क्या कर सकते हैं! फिर शायद अर्थ
व्यवस्था को बढ़ावा देने व व्यापार नीति के तहत यही अतिशय प्रयास और काशी का
विज्ञापन भी तो था प्रशासन की ओर से।
ऐसा भी नहीं कि सुधार ही नहीं हुआ हो। बनारस की चमक-दमक बढ़ी है।
बनारस से क्योटो की इस दौड़ में घाटों और गंगा के इस्तेमाल के भी नए और फायदेमंद
तरीके ढूंढे जा रहे हैं। अर्थ व्यवस्था सुधरी है। जमीनों के दाम बढ़े हैं। बहुत
कुछ बदल चुका है, बहुत
कुछ बदल रहा है बनारस शहर ही नहीं, बनारसियों
के भी अँदर-बाहर। विदेशी संस्कृति और बाजार दोनों ही इस छोटे शहर पर भी हावी होते
से जान पड़े। विकास के लिए जरूरी भी है शायद। संचार और प्रचार के इस युग में
अलग-थलग रहना तो वैसे भी संभव ही नहीं। इमारतें तो मानो पूरे शहर में ही नई शक्लें
अख्तियार कर रही हैं, जो
शहर की बढ़ती समृद्धि को परिलक्षित करती हैं। कई नई खड़ी थीं, पुरानी बिखरती हुई के बीच में शान से सिर उठाए… विकास और आधुनिकता
व संपन्नता का एलान-सा करती। मानो नय़ा बनारस पुराने से मिलकर एक नयी पहचान लेने को
तत्पर हो उठा हो। गंदगी और चमक-दमक की अद्भुत मिली जुली भेलपुरी-सी थी चारो तरफ और
साथ ही भागती-दौड़ती, संघर्ष
करती जिन्दगी की तीखी पसीने वाली महक भी। हर दो कदम पर झोपड़ झुग्गियों के बीच ही
एक होटल खड़ा दिख जाता। बगल में ही पुराना और जर्जर अनाथ या विधवा आश्रम भी। नई
विदेशी गाड़ियाँ थीं तो एक-एक ई रिक्शे में ठुंसे कई-कई लोग भी। और वहीं वाहनों के
बीच हर चार कदम पर बारात या कोई जुलूस भी निकल आता और तब कहीं भी मीलों लम्बी लाइन
लग जानी आसान बात है, वह
भी मिनटों में।
मील डेढ़ मील का ही रास्ता था वह घर से घाट तक का। कार-वार के
चक्कर में पड़ती तो शायद निकल ही नहीं पाते। फिर कार या रिक्शा कोई भी घाट तक तो
नहीं ही ले जाता। फिर भी, दुर्घटना
से बचना है तो पैदल ना ही चलें इन व्यस्त सड़कों पर वही बेहतर है। सुरक्षित पैदल
पथों की बनारस को उतनी ही जरूरत है, जितनी
कि वाहनों के लिए कुछ नई और चौड़ी सड़कों की। उसी अति व्यस्त माहौल में कैसे भी
आती जाती कारों से तो कभी रिक्शों और ठेलों से खुद को बचाते-संभालते, हम उस त्रिमुहानी पर पहुंच तो गए जिसके आगे गली पार करते ही गंगा
जी हैं- कुछ ऐसा ही सुबह बताया था भाई ने। पर त्रिमुहानी पर खड़ी किंकर्तव्य
विमूढ़ थी। सामने तीन गलियाँ थीं और कौनसी घाट तक ले जाएगी-पता नहीं था। अचानक छाप
तिलक लगाए वह व्यक्ति हनुमान जी-सा जाने कहाँ से उस सुनसान गली में हमारी मदद के
लिए प्रकट हो गया। पर वह पंडित सा दिखता व्यक्ति हमारे प्रश्न के उत्तर में भी
प्रश्न ही पूछ रहा था, ‘हनुमान
घाट, तुलसी घाट, जानकी
घाट या अस्सी घाट, कौन
से घाट जाना है, आपको?’ ‘कोई भी, जो करीब हो। ‘ शहर की भौगोलिक अज्ञानता पर असहज-सा महसूस कर रही थी
अब मैं। एक नया अनुभव था यह भी,-अपने
ही शहर में अजनबियों की तरह रास्ता पूछ-पूछकर घूमना और आगे बढ़ना। पर करती भी तो
क्या …बनारस में पैदा होने और पलने-बढ़ने के बावजूद, इस मोहल्ले और क्षेत्र में पहली बार ही तो आई थी। और फिर बचपन में
तो वैसे भी घमना-फिरना चंद पहचानी गलियों और सड़कों तक ही सीमित रहता है, खास करके लड़कियों का। सामने वाला व्यक्ति भरोसे मंद लग रहा था।-
मोहल्ला नया, तो पहचान भी तो नयी और धीरे-धीरे ही होगी इन गलियों से। गलत भी हो
सकती थी पर चोर उचक्का नहीं, आसपास
का ही रहने वाला लगा भलामानस। अंधेरे में ले जाकर लूटने वाला तो हरगिज ही नहीं।
फिर भी अंगूठियाँ हथेली की तरफ घुमा दीं और खुद को समझाया- पति साथ हैं, डर किस बात का! ‘आइये, मेरे पीछे-पीछे आइये। उधर ही जा रहा हूँ । यहाँ से दूर नहीं है
घाट। फिर एक घाट से दूसरे तक बहुत ही आसानी से पैदल-पैदल भी पहुंचा जा सकता है।‘ जवाब सुने बगैर ही वह हाथ से पीछे-पीछे आने का
इशारा करके तीर-सा आगे निकल गया। दुविधा
और ठिठक को भांपते हुए मानो उसने मन ही पढ़ लिया था हमारा। पलट कर चुप्पी को
तोड़ते हुए बातचीत की शुरुवात भी तब उसी ने की । ‘ डरें नहीं। नए आए हैं क्या इस शहर में?’
फिर पतिदेव की अनमनी-सी ‘हाँ’ और मेरी ‘नहीं’ सुनकर तुरंत ही चुप
भी हो गया वह। अब हम दोनों चुपचाप उस सुनसान संकरी-सी गली में हाथ भर की दूरी रखकर
उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। निर्णय सही था या गलत, पर बढ़ते अंधेरे के साथ-साथ मन में एक भय-सा बैठता जा रहा था, पता नहीं कितनी दूर है घाट, पता नहीं कहाँ ले जा रहा है य़ह? काशी करवट भी तो वहीं कहीं आसपास ही था। बारबार वही बनारस के बारे
में प्रचलित व बड़ों से सुनी ठगों और लूटपाट की कहानियाँ याद आ रही थी। कई बार खुद
को मन-ही-मन कोसा, क्या
जरूरत थी यह शौर्ट-कट लेने की। राहत तब महसूस हुई जब गली के अगले मोड़ के बाद ही
गंगा का पाट दिखने लगा।
क्रमश:
(बनारस में 1947 में पैदा हुई शैल अग्रवाल, बीएचयू
से अंग्रेजी साहित्य से एमए करने के बाद 1968 से सपरिवार इंगलैंड में ही रहती हैं।
भारत उनकी आत्मा में है। पिछले 50 साल से करीब करीब प्रतिवर्ष एकबार तो भारत अवश्य
ही आती हैं। साठ से अधिक देशों का भ्रमण कर चुकी शैल जी की लेखनी को दिल की भावनाओं
को व्यक्त करने का हथियार बनाई। इसी साल फरवरी में बनारस आयी शैल अग्रवाल को बनारस
में क्या बदला,क्या बदरंग महसूस हुआ शेयर
कर रही हैं रोमिंग जर्नलिस्ट संग। आगे भी आप शैल जी संग दुनिया की सैर करेंगे )
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