छोड़ें दीदी, जब हमन के मुँह से ही पनवा नाहीं छूटत तो औरन से का बोलेंगे
नवंबर 23, 2019
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बनारस
से ब्रिटेन लौटने की उल्टी गिनती चालू होने के बाद मां गंगा की गोद में बिना कुछ पल
बिताएं लौटना अधूरा लगता, इसीलिए घर से निकल पड़ी थी। गंगा घाट की तरफ पैदल ही। मेरे
लिए पहाड़ों की तरह ही नदियों और बहते जल का
आकर्षण सदा से ही चुम्बकीय रहा है। भीड़भाड़ भरे शहर के बीच में तो यह अनुभूति पल
भर में ही सारी ऊब और थकान मिटा देती है। फिर
बनारस की यह गंगामैया ही तो अपनों का घर है अब…मेरे जैसों का असली मायका पर बनारस
तो बनारस ठहरा। अस्त-व्यस्त और बेखबर, थकान
या आराम से न इसका वास्ता था और ना ही मेरा। मोह त्यागने की और मोक्ष की नगरी है
काशी, मोह में डूबने की
नहीं, जानती थी। पर मोक्ष
हरेक को तो नहीं ही मिलता। शिव की तीन लोक से न्यारी काशी में भी नहीं। गंगा तक तो
उत्तरायण बहती है यहाँ पर अपने मूल को ही देखती। फिर मैं मां-बाप,
बचपन को कैसे भूल जाती। जो समझ में आ जाए,
या जिससे मन भर जाए वह मोह ही कैसा?
धुंधभरी आंखों से चलती रही,
ढूंढती रही वह अपनों का बस एक अदृश्य
अहसास मात्र। एक बार फिर बनारस और गंगा से हलो और बॉय-बॉय दोनों ही कहने का समय आ
चुका था मेरे लिए। किसी वाहन से भिड़ न जाऊँ इसलिए अब बरसी,
तब बरसी आँखें कसकर पोंछ डालीं। सरसरी नजर
से तो सड़कों और गलियाँ ही नहीं, लोगों
की मन-स्थिति और रख-रखाव सब कुछ वैसा ही था वहाँ पर,
पर ध्यान से देखने पर चीजें तेजी से बदलती
समझ में आने लगीं। खाने पीने में जगह-जगह चाट पकौड़ी और बंगाली मिठाइयों के साथ-साथ
पीजा और बर्गर भी बिक रहे थे। क्षीरसागर के दूसरी तरफ ही भीड़ भरे मैकडौनल्ड और
पीजाहट थे। लड़कियों और युवाओं के कपड़े भी बड़े शहरों की तरह पाश्चात्य शैली के
ही अधिक दिखे। यही नहीं, बौलीवुड
की तर्ज पर उनकी काट-छांट भी अंगों को उभारने वाली या प्रदर्शन वाली ही अधिक थी।
लगा भारत के संस्कार और संस्कृति दोनों ही कहीं छूट तो नहीं रहे?
जैसे आदमियो की धोती की जगह अधिकांशतः
पैंटों ने ले ली है, साड़ियों
का प्रचलन भी लुप्तप्राय सा ही नजर आ रहा था। सहूलियत और आर्थिक दोनों हो वजहें हो
सकती हैं। पार्टी में जाना हो या अधिक खूबसूरत महसूस करना हो तो भले ही मंहगी
पारंपरिक साड़ियाँ निकल आए, किटी
वगैरह में तो अब सभी वैस्टर्न या इंडो वैस्टर्न कपड़े ही पसंद करती हैं। वैसे भी
सिल्क, जरी सभी कुछ इतना
मँहगा हो चुका है कि यदि असली चाहिए तो हजारों नहीं अब तो बनारसी साड़ियों के दाम
लाखों छूने लगे हैं। घर में भी साड़ी की जगह सूट और जीन्स ने ले ली हैं और
अभिजात्य घरों में जूस और शर्बत की जगह बीयर,
वाइन और मार्टीनी भी अब दिखने और पूछे
जाने लगे है, विशेशतः
अमीर युवाओं में। शराब लत नहीं, वैभव
का प्रदर्शन बन चुका है । चारो तरफ बड़े-बड़े शो रूम बन चुके हैं। पर सड़कों पर
आंखों के आगे वही पुराना बनारस था। चाट-पकौड़ी खाने वाले,
बरात में नाचने वाले और पटरियल सामान
बेचने वालों से बेवजह ही मोल-तोल करते तीर्थ यात्री और विदेशी पर्यटक तक,
यहाँ आते ही किसी के पास इतनी फुरसत नहीं
रह जाती, कि
दूसरों की असुविधा और विलंब के बारे में सोचे तक या उन्हें थोड़ी सी भी जगह दे
दें। हाँ, कई
ठलुए और बच्चे अवश्य आ जुड़ते हैं इस रेलमपेल और भीड़ को बढ़ाने को। एक बड़ा और
अच्छा बदलाव भी दिखा बनारस में, भिखारी
नहीं थे। भीड़भाड़ इतनी थी कि कंधे से कंधा टकराए बगैर आदमी पैदल चल ही नहीं सकता
था पतली-पतली और पुरानी इन सड़कों पर। आवारा कुत्तों और गाय भैंसों को अभी भी पहले
सी ही खुली छूट थी आदमियों के साथ सड़क और गलियों पर टहलने-फिरने की। कूड़े के ढेर
तो उतने नहीं दिखे, लिहाजा
सिर भन्नाती वह तीव्र महक भी नहीं थी, जिसकी
वजह से मेरे ब्रिटेन के पड़ोसी ने एक दशक पहले पूरे बनारस को ही खुले शौचालय की
संज्ञा दे दी थी। पान की पीक और उसका जी मिचलाता भभका आज भी वैसे ही चारो तरफ सड़क
और दीवारों को रंगे हुए था। अगल बगल के गद्दी वाले दुकानदारों से शिकायत की तो-
‘छोड़ें दीदी,
जब हमन के मुँह से ही पनवा नाहीं छूटत तो
औरन से का बोलेंगे। आदत पड़ चुकी है हम बनारसी लोगन को तो ई की।’ कहकर,
वह पूरे बनारसी अंदाज में बड़ी ढिटाई से
ठठाकर हंस पड़ा था। और तब हमारे बीच कहने-सुनने को कुछ नहीं बचा था।
क्रमश:
(
देश को आजादी जिस सन में मिली उस साल बनारस में पैदा हुई शैल अग्रवाल, बीएचयू से सन
1967 में अंग्रेजी साहित्य से एमए करने के बाद 1968 से सपरिवार( पति व बच्चों के साथ)
इंगलैंड में ही रहती हैं । परन्तु भारत उनकी आत्मा में है। पिछले 50 साल से करीब करीब
प्रतिवर्ष एकबार तो भारत अवश्य ही आती हैं। बनारस से कम उनको हिंदी से भी प्रेम नहीं
हैं। यूके में हिंदी दिवस मनाने के साथ जब उनकी लेखनी चलती है तो गंगा की निर्मल धारा
पाठकों को महसूस होती है। घूमना इनका शौक है। साठ से अधिक देशों का भ्रमण कर चुकी लेखनी
को दिल की भावनाओं को व्यक्त करने का हथियार बनाई शैल अग्रवाल रोमिंग जर्नलिस्ट पर
हम सबके बीच बनारस से लेकर दुनिया के कई शहरों की यात्राओं संग संस्कृति के रंग से
रूबरू कराएंगी। इसी साल मार्च के प्रथम सप्ताह में वह एक शादी के सिलसिले में आयी थीं।
व्यस्त दौरे के बीच मां गंगा से मिलने के लिए वह किस तरह एक शाम बिताई उन यादों को
सांझा कर रही हैं। आगे भी आप शैल जी संग दुनिया की सैर करेंगे )
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