ब्रिटेन से बनारस की बेटी का पैगाम, मां गंगा संग बिताई कैसे एक शाम
नवंबर 22, 2019
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बात 28 फरवरी 2019
की है, ब्रिटेन वापस लौटने के दिन नजदीक आ रहे थे पर गुजरात की धुंआधार यात्रा और
अन्य कार्यक्रमों की वजह से इतना थक चुकी थी कि कहीं निकलने को मन ही नहीं करता
था। बनारस में पली-बढ़ी, पढ़ी-लिखी,यहां यादों का खजाना था। एक तरफ बिखरी यादों का
पिटारा दूसरी तरफ बिखरा-बिखरा दिन था वह। समेटते-सहेजते याद आया कि अगले तीन दिन
प्रिय भतीजे की शादी की मौजमस्ती मनाते पांचतारा होटल में ही निकल जाएंगे और उसके
अगले दिन तो दिल्ली को वापसी है ही। घूमने-फिरने,
सबसे मिलने-मिलाने और पसंदीदा अन्दाज में
खरीददारी करने में वक्त ही नहीं मिला और ना ही ध्यान ही आया। बनारस अब मानो शिकायत
करता-सा लग रहा था। अक्सर अपनों के बीच खड़ी अपनों को ढूँढने लग जाती हूँ- क्या
यूँ ही लौट जाऊंगी इसबार बिना किसी से मिले,
मन की करे। और उनका क्या होगा जो गंगा की
लहरों में तिरोहित मेरे अपने मेरा इंतजार कर रहे हैं,
जिनसे अंतिम विदा भी नहीं कह पाई। बस एक
खबर मिली और धुँआ-धुँआ अदृश्य सभी गंगा में जा सिमटे। तबसे एक आदत-सी पड़ गई है
कम-से-कम एक बार तो उस घाट पर जाकर लहरों से बतियाने की।
भाई ने सुबह ही बताया था कि गंगा घाट पैदल भी बस दस मिनट ही दूर है। दशाश्वमेध न सही जो भी घाट पास में है, वही सही। कम से कम मन तो हल्का हो जाएगा। लहर लहर किनारे जुड़े हैं और बूंद-बूंद पानी समोए है सब कुछ। अंजुलि भर जल में ही चेहरे और यादें तैरने लग जाती हैं। मन बहलाने और समझाने की ही तो बात है सारी। आंखें नम थीं और मन बेहद ऊदा-ऊदा। गले में अटके पत्थर को झटपट निगलती बाहर निकल आई। वैसे भी जाड़े की वह गुनगुनी धूप बाहर निकलने को बार बार ही आमंत्रित कर रही थी। और तब हर अगर-मगर को पीछे छोड़ते, हम यूँ ही पैदल-पैदल घाट की ओर निकल पड़े। सड़क पर धक्कम-धक्का के बीच कुत्ते, गाय-भैंस और विदेशी पर्यटक, मानो सभी हमारे साथ ही चल रहे थे। पर एक धुनभरी ललक में , कैसे भी खुदको बचाती संभालती, रास्ता पूछती, अनुमान लगाती, नाक की सीध में चलती चली गई। जबतक खुली चौड़ी सड़क थी और भीड़भाड़ भरा बाजार था, कोई दिक्कत नहीं हुई, पर गलियों के मोड़ पर पहुंचते ही पूरी तरह से भ्रमित थी। गनीमत थी कि नहाने नहीं, बस शाम की सैर पर ही निकले थे हम। ना तो कोई जल्दी ही थी और ना ही किसी तरह का बोझ ही था साथ में। अनजान मोहल्ला, तिसपर से बनारस की भूलभुलैया वाली गलियाँ, पर मन भी तो हठ समाधि ले चुका था। वैसे भी मन्दिर या किसी आधुनिक सुविधाजनक मॉल में जाने के बजाय घाट पर ही जाना है- सभी विकल्पों को छोड़कर खुद हमने ही तो चुना था। आदतें कभी नहीं बदलतीं, चाहे हम उन्हें बदलने की कितनी ही कोशिश करें।
( देश को आजादी जिस
सन में मिली उस साल बनारस में पैदा हुई शैल अग्रवाल, बीएचयू से सन 1967 में
अंग्रेजी साहित्य से एमए करने के बाद 1968 से सपरिवार(
पति व बच्चों के साथ) इंगलैंड में ही रहती हैं । परन्तु भारत उनकी आत्मा में है। पिछले
50 साल से करीब करीब प्रतिवर्ष एकबार तो भारत अवश्य ही आती हैं। बनारस
से कम उनको हिंदी से भी प्रेम नहीं हैं। यूके में हिंदी दिवस मनाने के साथ जब उनकी
लेखनी चलती है तो गंगा की निर्मल धारा पाठकों को महसूस होती है। घूमना इनका शौक
है। साठ से अधिक देशों का भ्रमण कर चुकी लेखनी को दिल की भावनाओं को व्यक्त करने
का हथियार बनाई शैल अग्रवाल रोमिंग जर्नलिस्ट पर हम सबके बीच बनारस से लेकर दुनिया
के कई शहरों की यात्राओं संग संस्कृति के रंग से रूबरू कराएंगी। इसी साल मार्च के
प्रथम सप्ताह में वह एक शादी के सिलसिले में आयी थीं। व्यस्त दौरे के बीच मां गंगा
से मिलने के लिए वह किस तरह एक शाम बिताई उन यादों को सांझा कर रही हैं। आगे भी आप
शैल जी संग दुनिया की सैर करेंगे )
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हर हर गंगे
जवाब देंहटाएंInsan Apni dharti bahle hi Kisi Karan vas chod de pr apni chizon aur apno se lagav sada bana rahta hai it Kahan aasatha Judi Hoti hai wahan ki to baat hi Murali hai.Har Har gange����
जवाब देंहटाएंInsan Apni dharti bahle hi Kisi Karan vas chod de pr apni chizon aur apno se lagav sada bana rahta hai aur jahan aasatha Judi Hoti hai wahan ki to baat hi nirali hai.Har Har gange🙏
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