जिस समय मां के पेट में था उस समय उत्तरप्रदेश में था थाती धनारी का राजकीय इंटर कालेज अब उत्तराखंड में है। पापा की पहली पोस्टिंग उसमें हुई थी। जन्म बस्ती जिले के बेलहरकला गांव में हुआ,अब गांव यूपी के नए जिले संतकबीरनगर में आता था। गांव की ढेरों यादें हैं लेकिन आवाज ऊंची होने के कारण अम्मा अक्सर कहती थी गुल्लू तोहरे गटइया में नऊइना आपन अंगूठा डाल देहले रहल। मां की गोद में पलने बढ़ने से लेकर दूध पीने से लेकिन कितनी पप्पी मिली होगी उसका अंदाजा लगाना किसी संतान के लिए नामुमकिन है। लेकिन पापा की एक पप्पी आज भी मेरे दिल में है, जब इंटर की पढ़ाई के दौरान पालीटेक्निक की प्रवेश परीक्षा में चयन हुआ।पालीटेक्निक प्रवेश परीक्षा का रिजल्ट का अखबार लेकर जब घर पहुंचा तो पापा पूजा के कमरे में थे। पूजा खत्म होने के बाद आरती का स्वर कानों में पड़ा। आरती खत्म होने के बाद पापा को अखबार देते हुए कहा कि पालीटेक्निक का रिजल्ट आ गया है, प्रवेशपत्र दिखाते हुए कहा सेलेक्शन हो गया है। पापा अखबार देखने के बाद जो प्यार में पप्पी लिए उसे तीन दशक से ऊपर हो गए लेकिन दिल में ताजगी आज भी जस की तस है।पापा की पप्पी संग पापा का पोस्टकार्ड भी मेरे लिए किसी बड़ी पूंजी से कम नहीं है।
पोस्टकार्ड
की कीमत 15 पैसे थी लेकिन मेरे लिए आज की तारीख
में अनमोल है। यह पापा
का पोस्टकार्ड है। पापा अब दुनिया में नहीं हैं लेकिन दिल-दिमाग से लेकर देह में पापा ही बसे हैं। मां की गोद में ममता के साथ बढ़ने पर पापा का प्यार और मार के यादों संग पोस्टकार्ड में भी प्यार ही प्यार है। पापा के पोस्टकार्ड देखकर बस्ती जिले में कलम-दावात,स्याही की शीशी संग पापा की अलमारी से लेकर एक दशक पुराने इस खत के हर शब्दों मेंं प्यार,आर्शीवाद की चमक मुझे दिखती है। मोबाइल फोन जब नहीं था लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले बेटे की खोज-खबर संग जिदंगी की सीख देते पापा के इन पोस्टकार्ड में यादों का खजाना भरा है। पत्रकारिता की पिच पर उतरने के बाद लखनऊ में हिंदुस्तान की लांचिंग के साथ मुख्यधारा की पत्रकारिता में आने संग जिंदगी का सफर जो प्रारंभ हुआ उसमें कई शहर ही नहीं संचार माध्यमों में आए बदलावों का भी गवाह रहा हूं। लखनऊ यूनिवर्सिटी में 1996 में पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मोबाइल फोन देश में आया नहीं था। लखनऊ यूनिवर्सिटी के लालबहादुर शास्त्री छात्रावास के रूम नंबर 56 में रहने के दौरान पापा का अक्सर पोस्टकार्ड आता है। बस्ती के घर पर पली गाय के बछिया से लेकर भाई-बहन की पढ़ाई तक का हाल-चाल लिखने के साथ जिंदगी की जंग में सफल होने का पाठ पढ़ाने की सीख मिलती है। आज पापा दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके लिखे पोस्टकार्ड मेरे पास जो सलामत है वह किसी नोबेल पुरस्कार से कम नहीं लगता हैं।दीपावली को घर की सफाई के दौरान पुरानी फाइलों में पापा के कई पोस्टकार्ड मिले, जो लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान पापा ने लिखे थे।
संतकबीरनगर जिले में मौजूद पैतृक गांव बेलहरकला जो उस समय बस्ती जिले में ही था। उस समय पापा के पोस्टकार्ड से बस्ती के शिवनगर तुरकहिया स्थित घर ही नहीं गांव का भी हालचाल भी मिल जाया करता था। गांव के जगदीश काका लखनऊ के इंदिरानगर में डेयरी का प्रशिक्षण लेने गए हो या छोटी बहन की शादी के लिए योग्य वर की तलाश में पापा की भागदौड़ सबका संदेशा पोस्टकार्ड ही लेकर आता था। पोस्टकार्ड में गली-मोहल्ले से लेकर यार-दोस्तों के दाखिले सहित ढेरों खबरें मिलती थी। छोटी बहन गुड़िया के परीक्षा में पास होने से लेकर अगले कक्षा में दाखिले की तैयारी के साथ शादी के लिए लड़कों की खोज में पापा के भाग-दौँड़ की बात ही इससे पता चलती थी। यूनिवर्सिटी से कक्षा लेने के बाद जब हास्टल रूम पर आता तो पार्टनर सीतापुर का अम्बरीष वर्मा के हाथ अगर लगता तो कहता अबे तुम्हारे पापा को पोस्टकार्ड आ गया। हास्टल में उस समय तमाम छात्रों के अभिभावक पोस्टकार्ड या अंतरदेशीय पत्र भेजते रहते थे। अम्मा-पापा अब दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके आर्शीवाद के साथ यह पोस्टकार्ड अपने पास बड़ी पूंजी है। पोस्टकार्ड पर पापा की लिखावट देखकर लगता है वह दिल से आर्शीवाद दे रहे हैं। पोस्टकार्ड के प्रति जो प्यार हास्टल के समय था मोबाइल युग आने के बाद भी तनिक कम नहीं हुआ। आज हाथ में भले ही मोबाइल है लेकिन पापा का पोस्टकार्ड प्यार लगे। पंद्रह पैसे के पोस्टकार्ड पर पापा के दिल की भावनाओं के साथ आर्शीवाद की महक आज भी उसको सूंघने पर महसूस होती है।
So nice
जवाब देंहटाएंthx
जवाब देंहटाएंगोल्डेन मेमोरी
जवाब देंहटाएं15 पैसे के पोस्टकार्ड पर पिता जी के हाथों से लिखे शब्दों की कीमत अनमोल है
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